सुबह एक कविता लिखी मैंने
शाम को पढ़ने का समय मिला
लगा कुछ कमी रह गई
सो लग गया उसे सजाने में
लेखक के औजार निकले फिर
ठोका पीटी हुई शब्दो की
कुछ अलंकार जोड़ दिए
लय के धागे में भी पिरो दिया
बात फिर भी कुछ जमी नहीं
लगा सोचने मसले का हल
निगाह पड़ी उस पन्ने पे
लिखा जिसमें कविता का पहला ड्राफ्ट
ड्राफ्ट की कविता लगी जैसे
उदगम के निकट हो नदी
सकरी बहती स्वच्छ धारा
बिल्कुल उस पहले खयाल की तरह
जो मिला नहीं समतल मैदान के पत्थरों से
मैला नहीं हुआ वाह वाही के झूठ से
लगा बनावटी मरम्मत खोखली है
मोह है इसमें देह जैसा
ख्यालों की कविता, रूह से निकले
अधूरा सही मेरा सत्य है
अब यही रूहानियत
अंतिम ड्राफ्ट है मेरी कविता का
जिसे तकिए पे रखकर रात को
रूह आराम करती है ।