वो नहीं है इसका गम न हो

वो थी ये वजह शुक्रगुज़ार होने को क्या कम है ?

दुनिया से पर्दा रोशनियों का बुझना तो नहीं

क्योंकि चिराग तो यूँ बुझाया गया है

कि सुबह होने को है।

~ रविंद्रनाथ टैगोर

Wednesday 30 December 2020

Anguish!

सुबह माथा एकदम सपाट होता है

जिस पे दिनभर खेला जाता है

उम्मीदों और ख्वाबों का खेल

शाम को दफ्तर के बाद  

आइना देखता हूं तो पाता हूं

माथा सपाट नहीं होता

आडी तिरछी लकीरें उभर आती है माथे पे

ये लकीरें मेरे हाथों की लकीरों से कुछ अलग है 

हाथों की लकीरों में सुनहरा भविष्य कैद होता है

इसलिए हाथों की लकीरे देखने वाले पंडित बहुत है 

माथे की लकीरों में 

वर्तमान की आनिश्चित्ता

भूत की कुढ़न समाहित है

इसलिए माथे की लकीरों में किसी को दिलचस्पी नहीं

वे रातों को बिस्तर पे करवटें बदलती है 

बैचैन होकर उतार देता हूं इन्हें कागज़ो पे 

माथे से लकीरें तो गायब हो जाती है   

पर घर कर जाती है मन में एक कसक 

कल्पना की चादर ओढ़कर 

खुद को बहलाने की

और एक दिन 

यथार्थ को जी पाने की 

 शायद यही कसक 

लकीरें बनकर उभर आती होगी

अगले दिन माथे पे! 


@shubh.kavita


Photograph: Pinterest 

 

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