वो नहीं है इसका गम न हो

वो थी ये वजह शुक्रगुज़ार होने को क्या कम है ?

दुनिया से पर्दा रोशनियों का बुझना तो नहीं

क्योंकि चिराग तो यूँ बुझाया गया है

कि सुबह होने को है।

~ रविंद्रनाथ टैगोर

Sunday, 27 August 2017

याद है !?


याद है 
भीड़ में मुझे निहारती तुम्हारी आँखें 
नज़र चुराता हुआ मैं

 याद है 
गुलाबी चाशनी में भीगे हुए तुम्हारे होंठ 
मचलता हुआ मैं 

याद है 
तुम्हारी उलझी हुई जुल्फ़े 
उलझा हुआ सा मैं 

याद है 
तुम्हारे कोमल बदन का मर्म एहसास 
पिघला हुआ मैं 

याद है 
चुम्बक सा तुम्हारा आकर्षण
लोहा हुआ मैं 

याद है 
दो रोज़ का वो खूबसूरत सफर 
फिर तन्हा हुआ मैं 

याद है 
हाँ, मुझे सब याद है 
~ क्या तुम्हे याद है ?

Sunday, 20 August 2017

अंतर्द्वंद !

Life is a boxing match fought between me and my thoughts!


तेरे होने से मुझे मेरा एहसास है ?

या मेरे होने से तेरा ये अस्तित्व है ?



कि तेरी परछाई हूँ?

या मेरी परछाई का आईना तू ?



~तू कौन है ?



द्वन्द है!  
अंतर्द्वंद 
है!



सूरज का ताप हूँ ?

या अँधेरे की रौशनी मैं ?



घना ये जंगल हूँ ?

या तेरी उलझी हुई जुल्फे मैं ?



~कौन हूँ मैं ?

  

द्वन्द है!

 अंतर्द्वंद 
है!



खोजता हूँ तुझे मैं 

दिलचस्प तो है यह

तू भी मुझे खोज रहा



जो तू मुझसे लड़ रहा

कुछ तेरा क़त्ल हो रहा

कुछ मेरा खात्मा तू कर रहा



शायद पहचान की ये जंग है

जो भी है 
द्वन्द है

  अंतर्द्वंद 
  है!


Photograph: Boxing Bull -The Movie.

Tuesday, 1 August 2017

आलसय परमो धर्मा!

   आलसय परमो धर्मा!

थोड़ी सी धीमी
थोड़ी आलसी हो गयी
ज़िन्दगी आजकल सरकारी हो गयी।

ख्वाबो के टेंडर निकल रहे
नींद ने इनका ठेका ले लिया
हाय रे ये सुस्ती
हर काम पे भारी हो गयी
जिंदगी आजकल सरकारी हो गयी।

फाइलों में अटकी हर ख्वाहिश
घूम घूम कर बेहाल हो गयी
हाय रे रूपईया 
तेरे चक्कर में जेब भीखारी हो गयी
जिंदगी आजकल सरकारी हो गयी।

सुबह से शाम बैठे रहे ठलुआ
ठलुआ बैठे-बैठे अक्ल कूडादान हो गयी
 हाय रे कुर्सी
 तेरी हालत बहुतई नाजुक हो गयी
  जो साहब की तोंद फूल के फुटबॉल हो गयी


जिंदगी आजकल सरकारी हो गयी। “

Photograph: Internet