वो नहीं है इसका गम न हो

वो थी ये वजह शुक्रगुज़ार होने को क्या कम है ?

दुनिया से पर्दा रोशनियों का बुझना तो नहीं

क्योंकि चिराग तो यूँ बुझाया गया है

कि सुबह होने को है।

~ रविंद्रनाथ टैगोर

Friday, 23 August 2013

नशा.… मजा या सजा ?

नशा है नशा ,है ये कैसा नशा
दूर कितना भी रह लो ,इससे कोई न बचा ,
इसके दंदल में आकर तो हर कोई है फँसा,
पहले है ये मजा ,बन जाता है फिर ये एक सजा। 

नशा है नशा ,है ये कैसा नशा,

कभी धूप का नशा, तो कभी छाँव का नशा ,
कभी चलती धीमी हवाओं का नशा ,तो कभी उडती उड़ाती आँधियों का नशा,
कभी अकेलेपन में शांति का नशा, तो कभी भीड़ में पसरे शोरगुल का नशा ,
कभी नशे में डूबने का नशा, तो कभी इससे बाहर निकलने का नशा। 

नशा है नशा, है ये कैसा नशा 

कभी तुम्हे पाने का नशा ,तो कभी तुम्हे खोने का नशा ,
कभी तुम्हारी यादों का नशा ,तो कभी तुम्हे भुलाने का नशा ,
कभी तुम्हारे पास होने का नशा ,तो कभी तुमसे दूर जाने का नशा,
कभी तुमसे प्यार करने का नशा , तो कभी तुम्हारी नफरत को भुलाने का नशा ।। 

नशा है नशा ,है ये कैसा नशा
दूर कितना भी रह लो ,इससे कोई न बचा । 




 

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