वो नहीं है इसका गम न हो

वो थी ये वजह शुक्रगुज़ार होने को क्या कम है ?

दुनिया से पर्दा रोशनियों का बुझना तो नहीं

क्योंकि चिराग तो यूँ बुझाया गया है

कि सुबह होने को है।

~ रविंद्रनाथ टैगोर

Friday, 3 February 2017

स्टेशन

ट्रैन आ रहीं है,
ट्रैन जा रहीं है,
यात्री सवार हो रहे है,
कुछ यात्री उतर  रहे है,

मगर कुछ ऐसे भी लोग है,
जिनका स्टेशन ही बसेरा है

लेटे बैठे सर्द रात गुज़ार रहे है,
अपनी किसी ट्रैन का न जाने कबसे इंतज़ार है,
शायद ट्रैन कोहरे की वजह से रद्द कर दी गयी है!

ठंड लगातार बढ़ रही है,
पेट लगातार धस रहा है,
साँस लगातार कम् हो रही है,
हाठ-मांस काँप रहा है,
पेट को पैरों से ढककर चादर बना ली गयी है।

न जाने ये रात कैसे गुज़रेगी,
न जाने वो ट्रैन कब आएगी,

वो अपनी ट्रैन का इंतज़ार कर रहे है,
मैं अपनी ट्रैन का इंतज़ार कर रहा हूँ,

वो मुझे देख रहे है,
मैं उन्हें देख रहा हूँ,
उनकी आवाज़ गूंगी हो गयी है,
मेरे कान बहरे हो गए है!



No comments:

Post a Comment