वो नहीं है इसका गम न हो

वो थी ये वजह शुक्रगुज़ार होने को क्या कम है ?

दुनिया से पर्दा रोशनियों का बुझना तो नहीं

क्योंकि चिराग तो यूँ बुझाया गया है

कि सुबह होने को है।

~ रविंद्रनाथ टैगोर

Thursday 25 May 2017

एक ख़त तुम्हारे लिए!

दिनाँक- २५ मई, २०१७ 





प्रिय लेखक,
       मैं आशा करती हूं कि तुम सकुशल हो। मैं भी ठीक हूँ। मैंने सोचा कि तुम्हे याद कर लूँ। अब तुम्हारे पास तो मेरे लिए वक़्त नही है या यूं कहो कि तुम वक़्त देना नही चाहते।खैर मैने सुना है कि तुम शहर जाकर काफी मोर्डन हो गए हो। मोबाइल, लैपटॉप,आईफोन,टेबलेट जाने मार्केट में क्या क्या गया है। और उस मोबाइल से तुम्हे खासा लगाव हो गया है,दिन रात उसी के साथ रहते हो। पता नही क्या क्या लिखते पढ़ते रहते हो।
      और मैं ठहरी गांव की ओल्ड Fashioned , तुम्हारी नई टेक्नोलॉजी तो मेरे पल्ले ही नही पड़ती। इसलिए तो मुझे देखने मे भी तुम्हे शर्म आती है। अगर शहर में किसी को मालूम पड़ गया कि तुम मुझसे मिलने आते हो तो शायद वो लोग तुम्हारा बहुत मज़ाक उड़ाएंगे। इसी डर से आजकल तुम मिलने भी नही आते।
       अच्छा याद है , जब तुम गांव से पहली बार शहर आये थे। तुम अक्सर मुझसे मिलने आया करते थे। तुम मुझे बताते थे कि तुम्हारा शहर मे मन नही लगता।शहर की ऊँची ऊँची इमारते,गाड़ियों की तेज आवाज,दौड़ते-भागते लोग, इन सब के बीच मे तुम्हारा दम घुटता है। तुम वापस गांव आना चाहते थे। तुम्हे इस बात का सबसे ज़्यादा डर था कि शहर में रहकर तुम शहर से हो जाओगे। 
      सच कहूं तो मुझे बहुत अच्छा लगता था जब तुम बिना किसी झिझक के अपने सारे सपने और डर मुझे बताते थे। बहुत भोले से थे तुम। याद है, कैसे तुम प्रीति के लिए शायरियाँ लिखा करते थे। और वो लव लेटर! बाप रे! उसे पढ़कर आज भी पागलों की तरह हँसती हूँ मैं। और वो रात कैसे भूल सकती हूं जब तुम मुझसे लिपट कर रोये थे। जाने किस बात का गम तुम्हे अंदर ही अंदर सता रहा था।मैंने पहली बार तुम्हे इतना कमज़ोर और लाचार सा महसूस करते हुए देखा था। 
       ये सारे नाजुक पल कैसे बीत गए, भनक भी नही लगी।हम दोनों की नाव किनारे पर कब पहुँच गयी , इसका अंदाज़ा तुन्हें है और मुझे। हम नाव में बैठे उन नाविकों कि तरह थे जिसकी पतवार कभी तुमने थामी और कभी मैंने। तुम्हारी ये सारी यादें आज भी मेरे पास सुरक्षित है। खुशी ,गम,आशा ,निराशा, हार,जीत,गुस्सा,प्यार सब कुछ।कितनी अजीब बात है तुम्हारी ज़िन्दगी के इतने सारे पन्ने मेरे पास है, फिर भी मेरी ज़िंदगी के बहुत से पन्ने अब भी खाली है! उन बहुत से पन्नो को आज भी तुम्हारा इंतज़ार है। वो पन्ने अक्सर तुम्हें याद करते है,उन्हें तो ये भी नही पता कि अब तुम लिखते कैसे हो? तुम शहर जाकर काफी बदल गए होगे! शायद तुम्हारे लफ्ज़ भी शहर से ही हो गए होंगे। 
       अच्छा मैं अब तुमसे विदा लेती हूँ। और हाँ कभी गांव आओ तो मुझसे मिलने आना। पर मैं तो ये भी नही जानती कि तुम्हे मेरा घर याद भी है या नही?   
                                 


 तुम्हारी अपनी
डायरी


पता
गांव वाले घर के कमरे की अलमारी का दाये वाला कोना







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