मुझे कहानियाँ बेहद पसंद है। बचपन से ही। माँ कहानियाँ सुनाया करती थी। रोज़। एक नयी कहानी। और वो कहानी मेरी दुनिया बन जाती थी। सच कहूँ तो मैं इतना डूब जाता है उस कहानी की दुनिया में कि कहानी के किरदार से सहानुभूति रखने लगता। कभी कभी वह किरदार भी हो जाता।लेकिन फिर मैं पाता कि कहानी की दुनिया वास्तवविक दुनिया से मेल नहीं खाती ।कहानी का संसार टूट जाता ।मैं उदास हो जाता था।
तब माँ मुझे एक नयी कहानी सुनाती,नयी कहानी नए किरदार ।मैं उसकी इस कहानी को फिर सच मान लेता और नए किरदार कि भूमिका को समझने लगता। लेकिन यह भ्रम जल्द ही टूटकर बिखरा हुआ मेरे पलकों पे होता। ये सिलसिला हर बार का था।
बचपन से अब तक सुनाई गयी इन कहानियों के किरदार मुझ पे छाप छोडते गए । उनकी दुनिया मेरी दुनिया बनती बिगड़ती रही।हर किरदार मेरी दुनिया मे कुछ तलाशता रहा और मैं उस किरदार कि दुनिया मे। न वो पूरा हो पाता और न मे ही । किरदार हमेशा अधूरे रह जाते है लेकिन कहानियाँ पूरी हो जाती है। इसलिए कहानिया पसंद है मुझे,किरदार नहीं।
"एक चिड़िया थी ,उसके दो बच्चे थे। एक चिड़ा और दूसरी चिड़ी। वो चिड़िया अपने दोनों बच्चों से बहुत प्यार करती थी । दोनों से बराबर प्यार ,न कम न ज्यादा। जब भी वो चिड़िया खाने लेने के लिए बाहर जाती थी तो दोनों बच्चे प्यार से साथ में रहते ,कभी शरारत नहीं करते। जब उनकी माँ खाना लेकर वापस आती तो दोनों आपस में बराबर खाना बाटकर खाते। "
अच्छा माँ! और इतना कहते कहते मैं सो गया।
पता नहीं क्यों,अगली सुबह माँ को किसी काम से बाहर जाना पड़ा। अब घर पे मैं और मेरी बहन थे। दोपहर का वक़्त हों गया और मैं हो रहा था बोर। गर्मी का मौसम था और माँ ने फ्रिज में आइसक्रीम रखी हुई थी। मन ललचाया और मेरे नन्हे क़दमों ने उड़ान भरी। आइसक्रीम चटोर कर खाने वाला ही था कि अचानक माँ की कहानी याद आ गयी। मेरे कानो में माँ के शब्द गूँजने लगे "चिड़िया के दो बच्चे थे जो आपस में खाना बांटकर खाया करते थे ….. ।"
मैं फट से चिड़े की तरह उड़ान भर कर अपनी बहन के घोंसले में गया और बोला - दीदी , चलो न आइसक्रीम खाते है। आधा हिस्सा आपका और आधा मेरा। "हाफ क्यों ? मैं तुमसे बड़ी हूँ न , मैं हाफ से ज्यादा लूंगी।" दीदी ने कहा। मैंने धीरे से विरोध करना चाहा परन्तु उसे विद्रोह समझा गया। विद्रोह को चपट मपट मारकर कुचल दिया गया। चपट पड़ी सो पड़ी पर कहानी के चक्कर में आइसक्रीम भी गयी।
अब फ्रिज पे पहरा लग चुका था और बची खुची आइसक्रीम हो गयी थी उसमे बंद। मैं चिड़े की तरह फड़फड़ा रहा था लेकिन किसी ने एक न सुनी। भला सुनता भी कौन ?
रात में जब माँ घर पे आयी तो मैंने अपनी पूरी व्यथा सुनाई। माँ ने फैसला लिया कि आइसक्रीम को आज़ाद किया जायेगा और बराबर हिस्से में बाँटा जायेगा। ये क्या बात हुई ! उसने तो आधा पहले ही खा लिया है। - मैंने कहा! और मैं बिना खाये पिए सोने चल दिया।
पता है ,ये माँ लोग न बिलकुल सरकार की तरह होती है , अपनी प्रजा को ज्यादा देर नाराज़ नहीं देख सकती। सो मेरा पसंदीदा लड्डू लेकर आ गयी मेरे पास और बोलीं - " बेटा ! चलो आज मैं तुम्हे एक कहानी सुनाती हूँ। मैं चुपचाप बैठा रहा। अब से मैं कोई भी कहानी सुनने के मूड में नहीं था।
मेरा मूड देखकर माँ शायद सब समझ गयी। माँ धीरे से बोली ,बेटा ! एक राज़ की बात बताऊ ? "। मैंने मुँह फेर लिया। माँ मुस्कुराते हुए फिर बोलीं - बेटा ,राज़ ये है कि मैंने चिड़िया की कहानी तुम्हारी दीदी को नहीं सुनाई थी!
मैं झट से उठा और माँ की गोद में लेट गया और बोला कि माँ , मैं आपसे थोड़ी नाराज़ था , आपकी कहानी से था। न जाने उस दिन मैंने ऐसा क्यों कहा , लेकिन अब पता चल गया कि कहानी सच्ची थी , पर किरदार नहीं। इसलिए बचपन से लेकर अब तक मुझे कहानियाँ ही पसंद आयी है , किरदार नहीं। न जाने कौनसा किरदार कब रंग बदल ले !